कोहराम लाइव डेस्क : Jammukashmir विलय 73 वर्ष ट्विटर पर जबरदस्त ट्रेंड पर है। हो भी क्यों न, यह एक ऐसी घटना है, जिसको लेकर आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष चल रहा है। 26 अक्टूबर ही वह दिन था, जिस महाराजा हरि सिंह ने Jammukashmir को भारत में विलय करने के कागज पर हस्ताक्षर किया था। इसी को लेकर सोशल मीडिया पर संदेशों की बाढ़ सी आई हुई है।
जानते हैं 26 अक्टूबर का इतिहास
जब भारत आजाद हो रहा था तब ब्रिटिश राज ने सभी मौजूदा रियासतों और राजतंत्रों के सामने पेशकश की कि वो भौगोलिक स्थितियों के लिहाज से भारत और पाकिस्तान में से किसी एक में अपना विलय कर लें। तब जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने स्वाधीनता की घोषणा कर दी थी, यानी उनका कहना था कि ना तो हम भारत में जुड़ेंगे और न ही पाकिस्तान में, बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान बनाकर रहेंगे। हालांकि उसके बाद ऐसी स्थितियां पैदा हुईं कि उन्हें कश्मीर का भारत में विलय करना पड़ा.
हरि सिंह 1925 में कश्मीर की गद्दी पर बैठे थे
महाराजा हरि सिंह 1925 में कश्मीर की गद्दी पर बैठे थे, वह अपना अधिकांश समय बंबई के रेसकोर्स और अपनी रियासत के बड़े जंगलों में शिकार करते हुए बिताया करते थे। कश्मीर में तब उनके सबसे बड़े विरोधी शेख अब्दुल्ला थे। अब्दुल्ला का जन्म शॉल बेचने वाले एक व्यापारी के घर में हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमएससी की थी। शेख अब्दुल्ला ने पहले प्राइवेट स्कूल में टीचर की नौकरी की, फिर सियासत में कूद पड़े। उन्होंने सवाल उठाना शुरू किया कि इस सूबे में मुसलमानों के साथ भेदभाव वाला सलूक क्यों हो रहा है, बहुसंख्यक होते हुए वो नौकरी और दूसरी बातों में पीछे हैं।
1932 में ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन
1932 में शेख अब्दुल्ला ने महाराजा के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष को आवाज देने के लिए ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया। छह साल के बाद उन्होंने इसका नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस रख लिया, जिसमें हिंदू और सिख समुदाय के लोग भी शामिल होने लगे। इसी समय अब्दुल्ला ने जवाहरलाल नेहरू से भी नजदीकी बढ़ाई। दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता और समाजवाद पर एकमत थे। नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस में नजदीकियां होने लगीं। आजादी से पहले अब्दुल्ला ने कश्मीर में राजतंत्र की जगह प्रजातंत्र लाने के लिए आंदोलन शुरू किया। उन्हें जेल में डाल दिया गया।
हरि सिंह हिन्दू राजवंश को जिंदा रखना चाहते थे
महाराजा के मन में स्वतंत्र होने का विचार जड़ें जमा चुका था। वह कांग्रेस से नफरत करते थे, इसलिए भारत में शामिल होने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन अगर वो पाकिस्तान में शामिल हो जाते तो उनके हिंदू राजवंश का सूरज अस्त हो जाता। सितम्बर 1947 के आसपास खबरें मिलने लगीं कि पाकिस्तान बड़ी संख्या में कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना चाहता है। इस बीच 25 सितम्बर 1947 को महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया।
12 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के उप प्रधानमंत्री ने दिल्ली में कहा कि हम भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ दोस्ताना संबंध कायम रखना चाहते हैं। महाराजा की महत्वाकांक्षा कश्मीर को पूरब का स्विट्जरलैंड बनाने की है। उन्होंने आगे कहा कि केवल एक ही चीज हमारी राय बदल सकती है और वो ये है कि अगर दोनों देशों में कोई भी हमारे खिलाफ शक्ति का इस्तेमाल करता है तो हम अपनी राय पर पुनर्विचार करेंगे।
कबायलियों ने कर दिया हमला
इन शब्दों के बोले जाने के केवल दो हफ्ते बाद ही हजारों हथियारबंद कबायलियों ने राज्य पर उत्तर दिशा से हमला कर दिया। 22 अक्टूबर को वो उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत और कश्मीर के बीच की सरहद को पार कर गए और तेजी से राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़े। इन हमलावरों में ज्यादातर पठान थे, जो उस इलाके से आए थे जो अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गया है। इन कबायली विद्रोहियों ने बारामूला में बड़ा उत्पात मचाया। लूटपाट की और महिलाओं और लड़कियों से दुष्कर्म किया।
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24 अक्टूबर को महाराजा ने भारत सरकार को सैनिक सहायता का संदेश भेजा। अगले दिन दिल्ली में भारत की सुरक्षा समिति की बैठक हुई। वीपी मेनन को जहाज से तुरंत श्रीनगर रवाना किया गया। उन्होंने श्रीनगर में महाराजा से मुलाकात करने के बाद उन्हें हमलावरों से सुरक्षित जम्मू जाने की सलाह दी। नेहरू पाकिस्तान के कबायलियों से मुकाबले के लिए भारतीय सेना को फौरन कश्मीर भेजना चाहते थे। माउंटबेटन ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया.”
उन्होंने महाराजा से पहले विलय के कागजों पर दस्तखत करा लेने को कहा। उनका साफ कहना था कि बिना कानूनी विलय के वह ब्रिटिश अफसरों को भारतीय सेना के साथ नहीं जाने देंगे। 26 अक्टूबर को वीपी मेनन को जम्मू में महाराजा के पास फिर से भेजा गया। वहां मेनन से उनसे विलय पत्र पर दस्तखत कराया और दिल्ली आ गए।
भारतीय सैनिक श्रीनगर पहुंचे
जैसे ही ये कानूनी कार्यवाही पूरी हुई। नई दिल्ली ने माउंटबेटन की हिचकिचाहट की परवाह किए बगैर भारतीय सैनिकों से भरे विमान श्रीनगर भेजने शुरू कर दिए, तब तक हमलावर श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर रह गए थे। जब भारतीय जवानों का पहला जत्था श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंचा तो हमलावर हवाई अड्डे की सरहद तक आ पहुंचे थे। इसके बाद भारत ने उरी तक के क्षेत्र से कबायलियों को खदेड़ते हुए इसे अपने कब्जे में ले लिया।
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कश्मीर को लेकर दोनों देशों में तनातनी चरम पर थी. ये तब तक जारी रही जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली संयुक्त सुरक्षा समिति की बैठक में भाग लेने के लिए दिल्ली आए थे। वह और नेहरू इस बात पर सहमत हो गए थे कि पाकिस्तान कबायलियों को लड़ाई बंद करके जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए कहेगा। भारत भी अपनी ज्यादातर सेनाएं हटा लेगा. संयुक्त राष्ट्र को जनमत संग्रह के लिए एक कमीशन भेजने के लिए कहा जाएगा।
माउंटबेटन की सलाह बड़ी भूल साबित हुई
माउंटबेटन की सलाह से ही भारत इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गया था। ये एक बड़ी भूल साबित हुई। बहुत से भारतीय नेता इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि ब्रिटेन पाकिस्तान का साथ देगा. यही हुआ भी। अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर कश्मीर में अब्दुल्ला सरकार को हटाए जाने और जनमत संग्रह होने तक कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में लाए जाने की मांग की।