कोहराम लाइव डेस्क : politics में सबकुछ पोशीदा कहां होता है। यह खुला खेल का मैदान है, जिसमें लोकतंत्र की पिच पर चौके मारने वाले आंकड़ों में याद रह जाते हैं। भारतीय लोकतंत्र का आगाज सदियों की गुलामी की पीड़ा से निजात के बाद हुआ था और तय यह था कि राजनीति में शुचिता, लोक कल्याण एवं त्याग की बुनियाद पर नेता जन सेवा में खुद को झोंक देंगे। आखिर सबकुछ ही तो संवारना था। फर्श पर पड़ा हमारा आत्माभिमान कुछ डिग्री ऊंचा हो जाने की बाट जोह रहा था। ऐसे में तत्कालीन नेताओं ने नवनिर्माण की जमीन तैयार करनी शुरू की और साल दर साल बीतते समय के बरअक्स भारत ने कई नयी उम्मीदें हकीकत में तामीर की। आज बिहार चुनाव की घोषणा हो चुकी है। ऐसे में शिद्दत से याद आते हैं कर्पूरी ठाकुर जैसे जमीन से जुड़े नेता, जिनके लिए politics सत्ता का आस्वाद नहीं, बल्कि हाशिये पर पड़े लोगों की चिंता और सेवा में पल-पल घुलना ही रहा। खैर, तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। चुनाव आयोग के ही आंकड़ों पर गौर करें, तो आज की राजनीति में जितनी कालिख घुल चुकी है, उसका कोई पारावार नहीं। जन से दूर होते नेता, अपनी झोली भरते नेता, जाति-धर्म की राजनीति करते नेता अपनी पीढ़ियों के लिए इतना कुछ जमा कर लेते हैं कि आम जन की पीड़ा की गिनती ही कहां रह जाती है?
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नीति का मार्ग
मध्यम कद का एक आदमी जो प्रखर स्वाधीनता सेनानी, शिक्षक, बिहार का दूसरा उपमुख्यमंत्री और राज्य का दो बार मुख्यमंत्री रहा, अपनी समाजवादी नीति का आजीवन पालक रहा। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण उनके राजनीतिक गुरु रहे। 1970 के दशक में उन्हें दो बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर को दो कार्यकाल में लगभग ढाई साल शासन का मौका मिला, लेकिन लोगों के मन में उनकी सादगी और शुचिता रम गयी थी। मंडल आंदोलन से भी पहले उन्होंने बिहार में पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का साहसिक फैसला किया था। वे अपने काम से इतने लोकप्रिय थे कि सन् 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कभी हार का मुंह नहीं देखा। पहली बार विधायक बनने के साथ एक रोचक किस्सा जुड़ा है। वे ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे, लेकिन उनके पास ढंग का कोट नहीं थी। वे अपने एक दोस्त का फटा कोट ही पहन कर चले गये। युगोस्लाविया के तत्कालीन शासक मार्शल टीटो ने जब उनका फटा कोट देखा, तो उन्हें एक नया कोट उपहार में दिया। उनके राजनीतिक सोच की बानगी एक घटना है, जब उनके मुख्यमंत्री रहते गांव के ही कुछ दबंगों ने उनके पिता को अपमानित किया था। इस पर डीएम गांव में कार्रवाई करने पहुंच गये। कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें दबंग सामंतों के खिलाफ कार्रवाई करने से यह कह कर रोक दिया कि दबे-पिछड़ों का अपमान तो गांव-गांव में होता है। सबको पुलिस बचाये, तभी कोई बदलाव होगा।
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आदर्श से डिगना गवारा नहीं था
उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवी लाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र का कहा कि कर्पूरी जी कभी आपसे पांच-दस हजार की मदद मांगें, तो दे देना। मेरे ऊपर यह आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने उस मित्र से कई बार पूछा कि क्या कर्पूरी जी ने कुछ मांगा? मित्र का जवाब होता, नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं। 17 फरवरी,1988 को दिल का दौरा पड़ने से कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि देने हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गांव पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) गये थे। वहां उन्होंने जब कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोंपड़ी देखी, तो वे रो पड़े थे।
क्या आज की राजनीति में जन नायक कर्पूरी ठाकुर जैसा रत्ती भर भी आदर्श हम किसी नेता में ढूंढ़ सकते हैं? क्या हम इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि राजनीति में वर्षों बिताने के बाद कर्पूरी ठाकुर के पास अपना एक मकान तक नहीं था?